बड़े बड़े लच्छेदार भाषण करना आगया तो क्या उसे आत्म-ज्ञान हो जाएगा ? धारा-प्रवाह प्रवचन देना आजाए तो क्या यह समझ लेना चाहिए की इनको आत्मज्ञान होगया? अरे साहब बड़ा नाम है इनका, क्या बोलते है वाह! क्या ज्ञान है! इनको , अरे जनता पागल हो जाती है इनके पीछे जब यह बोलते है,, ऐसी बोलने की कला बड़ी मेहनत से सीखी होगी इनहोने, इन पर तो भगवान की कृपा है तभी ऐसा प्रभाव सामने वाले पर पड़ता है की वो अंदर से हिल जाता है ..... मगर यह एक कला तो हो सकती है ये योग्यता तो हो सकती है ये मेहनत तो हो सकती है मगर यह आत्म-ज्ञान का पैमाना नहीं है। अब आइये बड़े बड़े मेधावान की बात करते है तर्क-वितर्क, ज्ञान-विज्ञान, हाजिर जबाबी ये सब तो आजाएगा मगर ये सोचा जाये की भई बड़ा बुद्धिमान है ये आत्म तत्व को तो जानता ही होगा ..... तो यह भी पैमाना गलत होगा । जिसने बहुत बहुत शास्त्र सुने है दसियों वर्ष हो गए तो भी आत्म ज्ञान प्राप्त हो यह जरूरी नहीं है
आत्म-ज्ञान तो उसे प्राप्त होगा जिस पर प्रभु की कृपा होगी जिसे वो देना चाहेगा उसे मिलेगा यही अकाट्य सत्य है हम अपनी योग्यता के गर्व से भौतिक ऊंचाई तो प्राप्त कर सकते है मगर हम खुद क्या है उसे नहीं जान सकते स्वयं को जानना ही आत्मज्ञान है
जीवन में ज्ञान का महत्व जीवन में ज्ञान के बिना है सब अधूरा ज्ञान और अज्ञान में इतना ही भेद है
कि बीच में एक भ्रम का परदा लगा हुआ
है। जहां परदा खुल गया, अज्ञान समाप्त
हो गया, ज्ञान की ज्योति जग गई,
मनुष्य जो अपने आपको भूला हुआ था, होश
में आ गया कि मैं कौन हूं? मेरा लक्ष्य क्या है? मैं क्या करने आया था और
क्या करने लगा? मैं क्या लेकर आया था और
मुझे क्या लेकर जाना है? इस प्रकार अज्ञान रूपी अंधकार में
फंसा हुआ जीव प्रकाश होते ही सत्य
को देखने लगता है। यह बात अत्यंत
विचारणीय है कि- हे मनुष्य, तू हंस
स्वरूप हैं। जब तक तू कर्तापन के भ्रम में
फंसा हुआ है कि तू नर है या नारी, बूढ़ा है या जवान है, पूजा-पाठ, क्रिया-कर्म,
गीता-भागवत, रामायण, वेद शास्त्र,
उपन्यास जितना मर्जी पढ़ लो लेकिन
ज्ञान के बिना सब अधूरा है
क्योंकि ज्ञान में ही सब लय है। अगर
ज्ञान नहीं है तो सब कुछ अधूरा- सा ही लगेगा। इसलिए हे मनुष्य! तू चेतन है, पहले अपने
होश में तू आ जा। 'कहां से तू
आया कहां लपटायो?' 'निर्गुण से हंस आयो, सर्गुण में समायो,
काया गढ़ की बंधी माया में समाया।' सर्गुण माने यह स्वर जो चल रहा है।
निर्गुण से आकर यह स्वर में प्रवेश
किया। बहुत से लोग सर्गुण इस शरीर
को मानते हैं या वह
जो मूर्ति प्रतिमा दिखाई देते हैं उन्हें
सर्गुण मानते हैं, पर वह सर्गुण नहीं है। जो यह स्वर चल रहा है और इसका गुणों में
प्रवेश है, उसे सर्गुण कहते हैं। सर्गुण में समायो और कायागढ़
की बंधी माया में आकर डेरा डाला, मकान
जो बना था उसमें डेरा डाला और जो काया से
माया तक का विस्तार हुआ था इसमें तू
लपटा गया तो सब कुछ भूल गया, होश
नहीं रहा, फिर कोई संत मिले और चेतावनी दी कि- हे मनुष्य! तू
कहां भरमा था, देख तू कौन है? पांच तत्व में तू कोई तत्व ही नहीं, पृथ्वी,
जल, अग्नि, वायु, आकाश में तू कुछ
भी नहीं। तू न रजो गुण है, न सतो गुण और
न तमो गुण है। फिर तू क्या है? 'चेतन जीव
आधार है, सोहंग आप ही आप।
आत्म-ज्ञान तो उसे प्राप्त होगा जिस पर प्रभु की कृपा होगी जिसे वो देना चाहेगा उसे मिलेगा यही अकाट्य सत्य है हम अपनी योग्यता के गर्व से भौतिक ऊंचाई तो प्राप्त कर सकते है मगर हम खुद क्या है उसे नहीं जान सकते स्वयं को जानना ही आत्मज्ञान है
जीवन में ज्ञान का महत्व जीवन में ज्ञान के बिना है सब अधूरा ज्ञान और अज्ञान में इतना ही भेद है
कि बीच में एक भ्रम का परदा लगा हुआ
है। जहां परदा खुल गया, अज्ञान समाप्त
हो गया, ज्ञान की ज्योति जग गई,
मनुष्य जो अपने आपको भूला हुआ था, होश
में आ गया कि मैं कौन हूं? मेरा लक्ष्य क्या है? मैं क्या करने आया था और
क्या करने लगा? मैं क्या लेकर आया था और
मुझे क्या लेकर जाना है? इस प्रकार अज्ञान रूपी अंधकार में
फंसा हुआ जीव प्रकाश होते ही सत्य
को देखने लगता है। यह बात अत्यंत
विचारणीय है कि- हे मनुष्य, तू हंस
स्वरूप हैं। जब तक तू कर्तापन के भ्रम में
फंसा हुआ है कि तू नर है या नारी, बूढ़ा है या जवान है, पूजा-पाठ, क्रिया-कर्म,
गीता-भागवत, रामायण, वेद शास्त्र,
उपन्यास जितना मर्जी पढ़ लो लेकिन
ज्ञान के बिना सब अधूरा है
क्योंकि ज्ञान में ही सब लय है। अगर
ज्ञान नहीं है तो सब कुछ अधूरा- सा ही लगेगा। इसलिए हे मनुष्य! तू चेतन है, पहले अपने
होश में तू आ जा। 'कहां से तू
आया कहां लपटायो?' 'निर्गुण से हंस आयो, सर्गुण में समायो,
काया गढ़ की बंधी माया में समाया।' सर्गुण माने यह स्वर जो चल रहा है।
निर्गुण से आकर यह स्वर में प्रवेश
किया। बहुत से लोग सर्गुण इस शरीर
को मानते हैं या वह
जो मूर्ति प्रतिमा दिखाई देते हैं उन्हें
सर्गुण मानते हैं, पर वह सर्गुण नहीं है। जो यह स्वर चल रहा है और इसका गुणों में
प्रवेश है, उसे सर्गुण कहते हैं। सर्गुण में समायो और कायागढ़
की बंधी माया में आकर डेरा डाला, मकान
जो बना था उसमें डेरा डाला और जो काया से
माया तक का विस्तार हुआ था इसमें तू
लपटा गया तो सब कुछ भूल गया, होश
नहीं रहा, फिर कोई संत मिले और चेतावनी दी कि- हे मनुष्य! तू
कहां भरमा था, देख तू कौन है? पांच तत्व में तू कोई तत्व ही नहीं, पृथ्वी,
जल, अग्नि, वायु, आकाश में तू कुछ
भी नहीं। तू न रजो गुण है, न सतो गुण और
न तमो गुण है। फिर तू क्या है? 'चेतन जीव
आधार है, सोहंग आप ही आप।